श्रीमती जानकीदेवी बजाज के बारे में

त्याग, साहस और धैर्य की कहानी

श्रीमती जानकीदेवी बजाज के बारे में
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त्याग, साहस और धैर्य की कहानी

श्रीमती जानकीदेवी बजाज (1893–1979) का जीवन त्याग, साहस और धैर्य की प्रेरक कहानी है। मध्य प्रदेश के जावरा में एक समृद्ध वैष्णव मारवाड़ी परिवार में जन्मीं जानकीदेवीजी के जीवन में मात्र आठ वर्ष की उम्र में एक निर्णायक मोड़ आया, जब सन् 1902 में उनका विवाह बारह वर्षीय जमनालालजी बजाज से हुआ।

श्रीमती जानकीदेवी बजाज के बारे में
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गांधी के मार्ग पर

पति जमनालालजी की गांधीवादी सिद्धांतों के प्रति निष्ठा से प्रेरित होकर उन्होंने सादगी को अपनी शक्ति बनाया।

  • 1917 में, 24 वर्ष की आयु में, उन्होंने अपने सभी गहने त्याग दिए। कहती थीं — “सोना ईर्ष्या और भय को जन्म देता है।” उसके बाद उन्होंने कभी आभूषण नहीं पहने।
  • 1919 में उन्होंने पर्दा प्रथा का विरोध किया और महिलाओं से आग्रह किया कि वे भी सार्वजनिक जीवन में अपना मान-सम्मान पुनः प्राप्त करने के लिए परदा छोड़ दें।
  • 1921 में, 28 वर्ष की आयु में, उन्होंने रेशमी वस्त्र त्याग दिए और खादी को अपनाया। आत्मनिर्भरता और स्वदेशी के समर्थन में उन्होंने अपने हाथों से सूत कातना शुरू कर दिया ।
  • उसी वर्ष वर्धा के गांधी चौक पर उन्होंने अपने घर की सभी विदेशी वस्तुएँ तथा वस्त्र एकत्र कर उनकी होली जलाई जो सात दिनों तक जलती रही। इस तरह उन्होंने अपने विरोध को राष्ट्रभक्ति व सार्वजनिक त्यौहार का रूप दिया।

सामाजिक सुधार और साहसिक नेतृत्व

जानकीदेवीजी ने जो जीवन-मूल्य माने वही जिये। उनका जीवन सक्रिय सामाजिक सुधार का जीवंत उदाहरण बन गया।

  • 17 जुलाई 1928 को उन्होंने जमनालालजी के साथ मिलकर वर्धा के लक्ष्मीनारायण मंदिर के द्वार दलितों के लिए खोल दिए। भारत में ऐसा यह प्रथम ऐतिहासिक मंदिर था।
  • सामाजिक बंधनों को तोड़ते हुए उन्होने घर में एक दलित को भोजन परोसने के लिए रख लिया।
  • उन्होंने अस्पृश्यता का विरोध व समानता का समर्थन केवल शब्दों में नहीं, अपने दैनिक जीवन में किया। उनका घर भारत का वही लघुरूप बन गया जिसकी वे कल्पना करती थीं।

स्वतंत्रता संग्राम

जानकीदेवीजी ने गांधीजी का स्वराज का संदेश दृढ़विश्वास के साथ गाँव-गाँव पहुँचाया।

  • उनके सार्वजनिक संबोधनों से हजारों लोग स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने को प्रेरित हुए – चाहे वो नमक सत्याग्रह (1930) हो या सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930–32)। इस तरह एक सच्ची स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्हें पहचान मिली। 
  • इन आंदोलनों के दौरान उन्होंने अनथके गाँव-गाँव की यात्राएँ कीं, तथा हज़ारों महिलाओं और ग्रामीणों को सादगी किन्तु दृढ़ता के साथ सम्बोधित किया। 
  • सविनय अवज्ञा आंदोलन (1932) में उन्हें जेल भी हुई, पर उनका मनोबल अडिग रहा। उन्होंने दिखा दिया कि सच्चा देशप्रेम कर्म से झलकता है, कोरे शब्दों से नहीं।

ग्रामोदय और नारी सशक्तिकरण की पुरोधा

“महिला उद्यमिता” शब्द प्रचलन में आने से बहुत पहले जानकीदेवीजी ने इसे अपनी दूरदृष्टि कर्म तथा ग्रामीण आत्मनिर्भरता के प्रति निष्ठा से साकार किया।

  • वे महिला शिक्षा की ऊर्जावान समर्थक थीं। उन्होंने महिलाओं का आह्वान किया कि बाहर आकर ज्ञान व रोज़गार के द्वारा दृढ़ता से गरिमा हासिल करें।
  • उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के साथ भूदान (1951), कूपदान (1953) और ग्राम सेवा जैसे आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया।
  • 1942 से अखिल भारतीय गोसेवा संघ की अध्यक्ष के रूप में उन्होंने करुणा को रचनात्मक कार्य से जोड़ा जो गांधीजी के “सर्वोदय” के आदर्श में निहित है।
  • उन्होंने खादी, हस्तशिल्प और ग्रामोद्योग को प्रोत्साहित किया। इससे न केवल रोजगार के अवसर बने, बल्कि महिला उद्यमिता का बीजारोपण हुआ।

सम्मान और प्रेरक विरासत

जानकीदेवीजी की दूरदृष्टिता आज भी उन संस्थाओं, पुरस्कारों और पहलों में जीवित है जो उनके मूल्यों, आदर्शों व कार्यों से प्रेरित हैं।

  • 1956 में भारत सरकार ने उन्हें समाज के प्रति उनके अमूल्य योगदान के लिए देश के उच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया।
  • उनकी आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा ” एक ऐसी महिला की यात्रा है जो एक गृहिणी से गांधीवादी समाजसेवी और राष्ट्रीय नेता बन गई।
  • ‘आईएमसी लेडीज़ विंग जानकीदेवी बजाज पुरस्कार’ की स्थापना उनकी जन्मशती वर्ष 1993 में की गई। इस पुरस्कार के द्वारा उनकी उस दृष्टि की विरासत जीवित है जिससे सशक्त महिलाएं गावों में परिवर्तन का नेतृत्व करें।

जैसा जानकीदेवीजी कहा करती थीं — “नारी का कार्य जब करुणा और जिम्मेदारी से जुड़ता है, तब वह कइयों के जीवन को कठिनाइयों से उबार लेता है।”

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